
जब से अमेरिका ने अफगानिस्तान में तैनात अपने आधे फौजियों को हटाने और तालिबान के साथ बातचीत शुरू करने का फैसला किया है, तब से पाकिस्तान के पेट में दर्द शुरू हो गया है. पाकिस्तानी सरकार और मीडिया यह साबित करने पर तुले हैं कि अफगानिस्तान में शांति कायम करने में भारत की कोई भूमिका नहीं है, जबकि सच कुछ और है. अफगानिस्तान की सरकार और वहां की जनता ने भारत को हमेशा अपना अच्छा दोस्त समझा है और पाकिस्तान को ऐसा पड़ोसी, जिसने हमेशा उनकी नाक में दम किया है.
तालिबान के साथ अमेरिका की बातचीत पाकिस्तान की मध्यस्थता से हो रही है. तालिबान जैसे आतंकवादी गुटों से पाकिस्तान की घनिष्ठता का इससे पुख्ता सबूत और क्या चाहिए. लेकिन पाकिस्तानी मीडिया अपने देश को अफगानिस्तान में शांति का मसीहा साबित करने में जुटा है, जबकि असल में पाकिस्तान एक फिर अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को कमजोर करने और अपना दबदबा कायम करने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा है.
भारत की चिंता
रोजनामा पाकिस्तान के संपादकीय का शीर्षक है: भारत की अफगान शांति में कोई भूमिका नहीं. अखबार ने पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के हालिया अफगानिस्तान, चीन, रूस और ईरान दौरे का जिक्र करते हुए लिखा है कि इनका मकसद अफगानिस्तान में शांति का मार्ग प्रशस्त करना था और अफगानिस्तान में शांति से इन देशों के हित भी जुड़े हैं. लेकिन भारत की अफगान शांति में कोई भूमिका नहीं है बल्कि वो तो इसकी राह में कांटे बोने की कोशिश कर रहा है. अखबार लिखता है कि अब तो खुद अमेरिका भी तालिबान से बात कर रहा है और उम्मीद है कि यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा.
11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो सेनाएं अफगानिस्तान में तालिबान आतंकवादियों से लोहा ले रही हैं
अखबार के मुताबिक, अच्छी बात यह है कि अमेरिका को आखिरकार यह बात समझ में आ गई है कि वो दुनिया की पुलिस नहीं है और अब तक वह दुनिया में सिर्फ अपनी चौधराहट कायम करने के लिए ही ऐसा कर रहा था.
अखबार लिखता है कि जब अमेरिका ने भारत को अफगानिस्तान में शांति की भूमिका सौंपी थी तो उस वक्त भारत के लिए पाकिस्तान में अशांति फैलाना आसान हा गया था, लेकिन अब अमेरिका को मानना पड़ेगा कि भारत अफगानिस्तान के हालात खराब तो कर सकता है, लेकिन वहां शांति कायम करने में कोई मदद नहीं करेगा.
रोजनामा एक्सप्रेस लिखता है कि भारतीय मीडिया में होने वाले विश्लेषणों में कहा जा रहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं के हटने के बाद तालिबान और पाकिस्तान की हैसियत बहुत बढ़ जाएगी और इससे भारत के लिए बहुत सी मुश्किलें पैदा होंगी.
अखबार के मुताबिक भारत के एक पूर्व खुफिया अधिकारी अविनाश मोहन ने इकोनॉमिक टाइम्स में अपने लेख में कहा है कि सबसे पहले तो भारत को अमेरिका से बात करनी चाहिए कि वो वहां (अफगानिस्तान) से अपनी सेना ना हटाए. अखबार कहता है कि इस लेख में भारत को तालिबान से संपर्क करने की नसीहत भी दी गई है ताकि वो तालिबान को अपने बारे में संतुष्ट सके. क्योंकि अमेरिका के जाने के बाद राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार तुरंत गिर जाएगी और सत्ता तालिबान के हाथ में आ जाएगी.
अखबार के मुताबिक भारतीय विश्लेषकों को यह भी लगता है कि तालिबान के ताकतवर होने का असर पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर पर भी पड़ेगा जो भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है. अखबार लिखता है कि भारत के नीति निर्माता और रक्षा विशेषज्ञ अफगानिस्तान में होने वाली नई तब्दीलियों पर गहरी नजर रखे हुए हैं, इसलिए पाकिस्तान को भी वहां के घटनाक्रम पर पैनी निगाह रखनी होगी.
पाकिस्तानी हुक्मरानों को लगता है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज वापस चली जाएगी तो इसका फायदा भारत को वहां मिल सकता है
कुछ दो और कुछ लो
रोजनामा औसाफ़ लिखता है कि अफगानिस्तान में शांति के लिए पाकिस्तान की कोशिशें अब रंग लानी शुरू हो गई हैं और क्षेत्र के दूसरे देश भी अब इस हकीकत को स्वीकार कर रहे हैं कि अफगानिस्तान की शांति पूरे क्षेत्र की शांति के लिए जरूरी है. अखबार की राय में पाकिस्तान ही नहीं बल्कि रूस, चीन, अमेरिका और यूरोपीय देशों को भी अफगानिस्तान में स्थाई शांति से सुख की सांस नसीब होगी.
अखबार ने अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत में मध्यस्थ के तौर पर पाकिस्तान की भूमिका को एक कामयाबी बताते हुए लिखा है कि इससे पाकिस्तान को लेकर राष्ट्रपति ट्रंप की सोच में थोड़ी सी तब्दीली आई है. अखबार के मुताबिक अमेरिकी दूत जाल्म-ए-खलीलजाद ने भी अपने इस्लामाबाद दौरे में पाकिस्तान की भूमिका को सराहा, लेकिन अफगानिस्तान में भारत का बढ़ता असर और रसूख पाकिस्तान को मुश्किल में डालता है.
रोजनामा खबरें अपने संपादकीय में लिखता है कि अब क्षेत्र में उम्मीद पैदा हो चली है कि पाकिस्तान के सहयोग से तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत से अफगानिस्तान और पाकिस्तान में शांति कायम होगी. अखबार ने अमेरिकी विशेषज्ञों के हवाले से लिखा है कि अमेरिका तालिबान के साथ ‘कुछ दो और कुछ लो’ की नीति पर आगे बढ़ रहा है. अखबार के मुताबिक उन्होंने इस बात को ज्यादा अहमियत दी है कि क्षेत्र में अपना सियासी दबाव बढ़ाने की बजाय अमन की राह तलाश करना अमेरिका के हक में होगा.
पाकिस्तान का हित
जंग लिखता है कि अफगानिस्तान की जो सरकार हमेशा पाकिस्तान पर आरोप ही लगाती आई है, उसने भी तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत का समर्थन किया है और इसे पाकिस्तान की तरफ से शांति के लिए उठाया गया पहला कदम बताया है.
पाकिस्तानी मीडिया और वहां के उर्दू अखबार अफगानिस्तान में शांति बहाली के भारत के प्रयासों पर झूठी खबरें औऱ प्रोपगैंडा फैलाने का काम करते हैं (फोटो: रॉयटर्स)
अखबार के मुताबिक इस बातचीत से उम्मीदें इसलिए भी लगाई जा रही हैं क्योंकि इसमें तालिबान के सशस्त्र और राजनीतिक, दोनों समूहों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया और ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. अखबार की टिप्पणी है कि अफगानिस्तान में अशांति का सीधा नकारात्मक असर पाकिस्तान पर पड़ता है इसलिए पाकिस्तान न सिर्फ अफगानिस्तान में शांति चाहता है बल्कि इस बारे में हर तरह के सहयोग के लिए तैयार भी है.