
कहानी
विजय बोराडे (अमिताभ बच्चन) एक स्पोर्ट्स प्रोफेसर हैं, जो कुछ ही दिनों में रिटायर होने वाले हैं। उन्होंने कॉलेज में कई बच्चों को फुटबॉल में प्रशिक्षित किया है, लेकिन जब पड़ोस की झुग्गी बस्ती के बच्चों को प्लास्टिक की बोतल से फुटबॉल खेलते देखते हैं तो बरबस की उस ओर खींचे चले जाते हैं। वह उन्हें खेल में प्रशिक्षित करना शुरू कर देते हैं; शुरुआत में पैसे की लालच देकर, फिर खेल को आदत बनाकर। उनके प्रशिक्षण की वजह से झुग्गी के बच्चे, जो पहले कभी नशे में लिप्ट होकर इधर उधर आवारागर्दी करते थे, चोरी चकारी, हर तरह से अपराध की लत से ग्रस्त थे; अब फुटबॉल के बारे में सोचा करते हैं। ये खेल उन बच्चों के लिए उस दुनिया में झांकने का एक जरिया था, जिसे वो आज तक सिर्फ दूर से देखते आए हैं। झुग्गी के वो बच्चे, जिन्हें दीवार की दूसरी तरफ सिर्फ गुंडे लफगों की तरह ही देखा गया है। प्रोफेसर समाज की दीवार को तोड़कर दोनों दुनिया को मिलाना चाहते हैं। एक दृश्य में प्रोफेसर विरोध में खड़े लोगों से कहते हैं- “कॉलेज के दीवारों के पार भी एक भारत रहता है, हमें उसके लिए भी सोचना होगा..”। लेकिन क्या वो इसमें सफल हो पाएंगे? क्या झुग्गी के बच्चे अपराध और नशे की अंधेरी गलियों से निकलकर दूसरी ओर छलांग लगा पाएंगे? इन्ही सवालों के इर्द गिर्द घूमती है पूरी फिल्म।

निर्देशन
“Crossing the wall is strictly prohibited”, दीवार पर लिखे इन शब्दों को निर्देशक नागराज मंजुले जिस तरह कैप्चर करते हैं, कहीं ना कहीं फिल्म का पूरा सार निकल आता है। झुंड पूरी तरह से स्पोर्ट्स बॉयोपिक नहीं है। बल्कि संवाद के जरीए निर्देशक ने कई सामाजिक मुद्दों को छुआ है। वह दिखाते हैं कि भारत में बस रही दो अलग अलग दुनिया को एक करने के लिए एक समाज के रूप में हम और आप क्या कर सकते हैं। निर्देशक कई शानदार दृश्यों के साथ दोनों दुनिया के बीच की दीवार फांदने और तोड़ने की बात करते हैं।
पहले दृश्य के साथ ही नागराज मंजुले जता देते हैं कि यहां की कहानी और किरदार रिएलिटी से करीब होने वाले हैं। फिल्म का पहला हॉफ काफी तेज गति से आगे बढ़ता है। आप लगातार किरदारों से जुड़ाव महसूस करते हैं। कहानी थोड़ी इमोशनल करती है, लेकिन सही मात्रा में हंसाती और सिखाती भी है। दूसरे हॉफ में निर्देशक कई मुद्दों के साथ खेल केंद्रित कहानी से थोड़ा भटकते लगते हैं। लेकिन शानदार स्टारकास्ट और तकनीकी पक्ष से फिल्म बांधे रखती है।

अभिनय
अमिताभ बच्चन हर फिल्म, हर किरदार के साथ हैरान कर जाते हैं। एक मेगास्टार की छवि उतारकर वह जिस तरह विजय बोराडे के किरदार में उतर गए हैं, यह शानदार है। फिल्म में वो एक रिटायर्ड स्पोर्ट्स प्रोफेसर के किरदार में हैं, जो झुग्गी के बच्चों के हाथों में फुटबॉल के साथ साथ सपने देखने की हिम्मत भी देते हैं। उन बच्चों के लिए वो हर तरह की बाधाओं से लड़ते हैं- चाहे वो सामाजिक हो या वित्तीय। फिल्म में उनके साथ कई कलाकार हैं, जो झुग्गी की फुटबॉल टीम का हिस्सा बनते हैं। खास बात है कि अमिताभ बच्चन कभी भी किसी अन्य कलाकार पर हावी होते नहीं दिखते। रिंकू राजगुरु और आकाश ठोसर कुछ ही मिनटों के लिए स्क्रीन पर दिखते हैं, लेकिन छाप छोड़ते हैं। अभिनय की बात करें तो झुग्गी फुटबॉल का हिस्सा बने सभी कलाकारों ने उत्कृष्ठ प्रदर्शन किया है। अंकुश उर्फ़ डॉन के किरदार में अंकुश गेदम फिल्म में बेहद प्रभावशाली नजर आए हैं।

तकनीकी पक्ष
सिनेमेटोग्राफर सुधाकर रेड्डी यक्कंटी ने अपने कैमरे से नागपुर शहर विशेषकर झोपड़पट्टी के इलाके, वहां की गलियों और पूरे परिदृश्य को सटीक कैप्चर किया है, जहां फिल्म का अधिकांश हिस्सा गुजरता है। लेखन- निर्देशन के तौर पर यूं तो नागराज मंजुले फिल्म से आपको पूरी तरह से जोड़े रखते हैं, लेकिन एडिटिंग के दौरान फिल्म थोड़ी कसी जा सकती थी। खासकर सेकेंड हॉफ में कहानी थोड़ी खिंचती हुई सी लगती है। बता दें, फिल्म 178 मिनट यानि की लगभग 3 घंटे लंबी है।

संगीत
फिल्म में संगीत दिया है अजय- अतुल ने और बोल लिखे हैं अमिताभ भट्टाचार्य ने। कोई शक नहीं कि फिल्म का संगीत कहानी को और गहरा बनाता है। गाने के बोल बेहद शानदार हैं, जो आपको पर्दे पर दिख रहे किरदारों की दुनिया में झांकने में मदद करते हैं। साकेश कानेतकर द्वारा दिया गया बैकग्राउंड स्कोर बेहतरीन है।

देंखे या ना देंखे
जरूर देंखे। बॉलीवुड में स्पोर्ट्स पर बनी फिल्मों से काफी अलग है ‘झुंड’। नागराज मंजुले के निर्देशन में खेल पर बनी ये फिल्म आपको ज़िंदगी के बारे में बहुत कुछ सीखा जाएगी। फिल्म में अमिताभ बच्चन ने शानदार काम किया है और उतनी ही शानदार है फिल्म की फुटबॉल टीम। फिल्मीबीट की ओर से झुंड को 3.5 स्टार।